Tuesday 5 April 2016

हरिबाबा बाँध धाम जहाँ करीब ५ दशकों(४६-४७वर्ष) से अखंड संकीर्तन चल रहा है

मेरी इस यात्रा की भूमिका तब बनी जब मैं वृन्दावन में दावानल कुण्ड में स्थित श्रीहरिबाबा आश्रम में उनकी जीवनी लेने गया था l असल में उनके द्वारा संकीर्तन से सम्बंधित बहुत से चमत्कार जुड़े हुए है इसी वजह से मैं उनकी जीवनी पढने को प्रेरित हुआ l मेरे एक मित्र है ब्रजेश चन्द्र यादव जी l उनसे फेसबुक पर ही परिचय हुआ है l उन्होंने ही वृन्दावन के श्रीहरिबाबा आश्रम का पता बतलाया था जहाँ उनकी जीवनी मिल सकती है l ये उत्तर प्रदेश के संभल जिले में रहते है l वही पर श्रीहरिबाबा ने बाँध बनबाया था संकीर्तन के बल पर ग्रामीणों की मदद से l
इसके पीछे की घटना ये है की करीब १९१७(अंग्रेजी वर्ष) के समय जब ये बदायूँ जिले के गवाँ गाँव (अब संभल जिले में) में थे l उस समय वर्षा ऋतु का समय था l उस समय गंगाजी की बाढ़ से इस प्रांत के अनेकों गाँव और खेत बह गये थे l कितने ही गाय-बैल बह गये थे l वहाँ के निवासियोंके मनमें दुःख और चेहरे पर उदासी थी l बाबा ने बाँध बँधवाकर सबकी विपत्ति दूर करने का निश्चय किया l
उस समय अंग्रेजोंका शासन था l उन्होंने अंग्रेजों से प्रार्थना की; परन्तु लाखों रुपयोंका व्यय बताकर सरकार ने बात टाल दी l पर वे निराश नहीं हुए l कुछ साल बाद सन् १९२१-२२ के आसपास श्रीहरिबाबा ने ‘हरिबोल’ बोलकर स्वयं फावड़ा उठाया और टोकरी ली l फिर तो क्या कहना था, सहस्रों स्त्री-पुरुष फावड़े और टोकरियाँ ले बाबा के साथ बाँध बाँधनेके लिये मिट्टी फेंकने लगे l यह संख्या उतरोतर बढती गयी तथा ‘हरिबोल’, ‘हरिबोल’ के सामूहिक उच्च घोषके साथ बाँध तैयार होने लगा l कुछ समय बाद तो कितने ही इंजीनियरोंने स्वेछापूर्वक उक्त बाँधनिर्माणके लिये अपनी निःशुल्क सेवाएँ समर्पित की l बाँध तैयार होता और श्रीभगवन्नामका कीर्तन होता जाता l इस प्रकार वर्षाके पूर्व ही उक्त बाँध तैयार हो गया l मनुष्य ही नहीं, पशुओंका भी कष्ट मिटा l कहते हैं, इस बाँधके निर्माणमें दीन-दुखी, रोगी, लँगड़े-लूले आदि जिसने ‘हरिबोल’ बोलते हुए मिट्टी फेंकी, उन सबकी कामनाएँ पूरी हुईं और सहस्रों नर-नारियोंका ‘हरिबोल’, ‘हरिबोल’ की ध्वनि करते हुए श्रमदानका दृश्य भी अभूतपूर्व था, जो कभी कहीं देखनेमें नहीं आया l हरिबाबा सबसे आगे सिरपर मिट्टीकी टोकरी रखे दौड़ते थे और उच्चस्वरसे बोलते थे – ‘हरिबोल, हरिबोल l’ उसी दयालु, कर्मठ एवं भगवन्नामके उपासक संतके नामपर उक्त बाँधका नाम पड़ा ‘हरिबाबा बाँध’ l इसका निर्माण सिर्फ ६ महीने में हो गया और इसकी लम्बाई है ३४ मील (करीब ४७ किलोमीटर) l
बाँध निर्मित हो जानेपर बाबाने वहीं विशाल संकीर्तनभवन एवं संतोंके लिये कुटियोंका निर्माण कराया l कई मन्दिर भी बनवाये l उक्त पवित्र भूमिपर बाबाने अनेक महोत्सव तथा कथा – कीर्तन एवं सत्संगका आयोजन किया l रासलीला एवं रामलीला होने लगी l ‘हरिबोल’ का कीर्तन एवं नगारेकी ध्वनि दूरतक फैलने लगी l उक्त स्थान परम पावन तीर्थ बन गया और दूर-दूरसे सहस्राधिक व्यक्ति प्रतिदिन आ-आकर स्नान, मन्दिरमें पूजन, संतदर्शन एवं कथा-कीर्तनसे लाभान्वित होने लगे l बाबाने प्रायः सभी प्रख्यात महात्माओं एवं कथावाचकोंको आमंत्रित किया l
चेला चेली बनाना उन्हें पसंद नहीं था l एक स्त्रीके दीक्षा लेनेकी प्रार्थनापर आपने तुरंत उत्तर दिया – ‘माँ, मुझे ही पता नहीं कि मेरा कल्याण होगा या नहीं ? फिर मैं तुम्हारा या अन्य किसीका दायित्व किस प्रकार ले सकता हूँ l’
बाबा श्रीकृष्ण, श्रीराम, श्रीदुर्गा और गणेश आदि देवताओंमें भेद नहीं मानते थे l सबमें एक ही परब्रह्म परमेश्वरको मानते थे l यद्यपि वे चैतन्य महाप्रभुको विशेष रूपसे मानते थे l आप रहते तो थे श्रीकृष्णाश्रम वृन्दावनमें, किन्तु होशियापुरमें अपने गुरुस्थानमें भी एक सुन्दर मन्दिर बनबाया था और उसमें बड़े ही आदर एवं सम्मानपूर्वक गुरुग्रंथसाहबकी स्थापना करायी थी l
अपने अंतिम समयमें बाबा रुग्न रहने लगे l दिनांक ३१ दिसम्बर १९६९ को श्री आनंदमयी माँ आपको अपने साथ विश्वनाथकी मोक्षदायिनी पुरी काशीमें अपने आश्रममें ले गयीं और वहीं आपने दिनांक ३ जनवरी १९७० की रात्रिमें १ बजकर ४० मिनटपर श्रीगोलोकधामकी यात्रा की l उस समय वहाँ श्रीभगवन्नामकीर्तन हो रहा था l
उस समय से ही श्रीहरिबाबा बाँध धाम(गवाँ से दो किलोमीटर दूर) पर महामंत्र (हरे कृष्ण हरे राम) का अखंड कीर्तन आज तक चल रहा है l
(उपरोक्त विवरण का अधिकाँश भाग गीताप्रेस की पुस्तक ‘सत्य एवं प्रेरक घटनाएँ’ से )
ये हुआ बाँध से जुड़ा हुआ विवरण l तो जब मैं वृन्दावन यात्रा पर था उस समय श्री ब्रजेश चन्द्र यादवजी ने मुझे हरिबाबा बाँध धाम पर होली के समय होने वाले उत्सव (१७-२३ मार्च) के लिये आमंत्रित किया था l मैं वहाँ जाने को लेकर दुविधा में था की जाऊँगा या नहीं इसलिये टिकट भी नहीं लिया था l तो उत्सव शुरू होने के कुछ दिन पूर्व उन्होंने मुझे फिर याद दिलाया l मैंने पहले से reservation करवाया भी नहीं था ट्रेन में और ४-५ दिन पूर्व कहाँ से मिलता l इसके लिये मुझे तत्काल या किसी एजेंट को पकड़ना पड़ता और तब भी जरुरी नहीं था की टिकट मिल ही जायेगा l तब मैंने विचारकर सोचा चलो general से ही चलते है l हाँ ये बात जरुर थी की कभी इतनी लम्बा सफ़र जनरल से नहीं किया था l अधिक से अधिक ६-७ घंटे का सफ़र किया होगा वह भी कभी-कभार l वहाँ पहुँचने का रूट भी मैंने पूछ लिया था l अलीगढ़ या मुरादाबाद से बबराला l और बबराला से गवाँ l गवाँ से हरिबाबा बाँध धाम की दुरी २ किलोमीटर है l मैंने ब्रजेश जी को सुचित कर दिया की मैं १९ को चलकर २० को पहुँच रहा हूँ l
मैंने १९ को इसलिये चुना क्योंकि उस दिन एकादशी भी थी तथा एक ट्रेन हैं अर्चना एक्सप्रेस जोकि सुबह ७.३० में पटना स्टेशन से खुलती है l इससे मुझे ये लाभ होता की अगले दिन सुबह मैं उस जगह पहुँच जाता l मैं हमेशा वैसी यात्रा पसंद करता हूँ जिसमें सुबह तक अगली जगह पहुँच जाऊँ क्योंकि ट्रेन में फ्रेश होना एक समस्या रहता है l और एकादशी के दिन मैं फल पर रहता हूँ अतः मुझे ये तारीख अनुकूल प्रतीत हुई l
१९ तारीख को करीब सुबह साढ़े ६ बजे स्टेशन पहुँचा और लखनऊ तक का एक जनरल टिकट ले लिया l लखनऊ से मुझे अलीगढ़ के लिये दूसरी ट्रेन पकड़नी थी l अर्चना एक्सप्रेस एक स्टेशन पूर्व राजेन्द्र नगर से खुलती है इसलिये जब पटना स्टेशन पर आयी तो विशेष भीड़ नहीं थी l मुझे आराम से एक ऊपर की सीट मिल गयी l उसपर अधिकाँश समय लेटकर और कभी बैठकर रात को करीब साढ़े ७ बजे लखनऊ स्टेशन पहुँच गया l वहाँ से अलीगढ़ के लिये फरक्का मिल गयी l इस ट्रेन में भीड़ थी लेकिन फिर भी थोड़ी देर बाद ही सीट मिल गयी l इससे सुबह करीब ४ बजकर २० मिनट के आसपास अलीगढ़ पहुँच गया l यहाँ तक के सफ़र में मुझे विशेष परेशानी नहीं हुई l देखा जाय तो मैंने उस समय तक करीब ९०० किलोमीटर तक का सफ़र किया था यानि नई दिल्ली से मात्र १०० किलोमीटर कम ( पटना से लखनऊ ५१४ और लखनऊ से अलीगढ़ ३८२) अलीगढ़ पहुँचने पर पता चला की बबराला जाने के लिये पैसेंजर गाडी खड़ी है जोकि ५.४५ में खुलेगी l वह संभल जाने वाली गाड़ी थी l मैंने एक व्यक्ति से पूछा की ये बबराला जायेगी तो पहले वे नहीं समझे फिर उसे बबराले कहकर संबोधित किया l गवाँ बताने पर भी नहीं समझ रहे थे उन्होंने कहा यहाँ गवाँ कोई नहीं समझेगा गमे समझेगा l खैर मैं आकर एक बोगी में ऊपर के सीट पर जाकर सो गया l रात से जगा हुआ था l लोगों से पूछा तो मालुम पड़ा की ये ७ बजे के करीब बबराला पहुँचेंगी l आराम से करीब २ घंटा सोया और साढ़े ६ बजे उतरकर नीचे आ गया l बीच में ट्रेन किसी स्टेशन पर आधा घंटा रुकी थी किसी मालगाड़ी को पास कराने के लिये l फिर भी ७ बजे ट्रेन बबराला पहुँच ही गयी l ट्रेन में मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ की एक लड़का जैकेट पहने हुए था l पूछने पर मालुम पड़ा की रात से सुबह तक ठंढ रहती है l ये मेरे लिये इसलिये आश्चर्यजनक था क्योंकि एक महीने पूर्व जब मैं गुजरात की यात्रा पर था उस समय वहाँ अच्छी गर्मी पड़ रही थी l
वहाँ से उतरकर अब मुझे गवाँ के लिये बस पकड़नी थी l जोकि करीब २५ किलोमीटर थी l मैंने ब्रजेश जी को फोन कर पता कर लिया की बस कहाँ से मिलेगी गवाँ के लिये l जब मैं बढ़ रहा था तो वे आदमी मिल गये जिनसे मैंने शुरू में पूछा था की ये ट्रेन बबराला जायेगी या नहीं l वे हरियाणा में काम करते थे और होली की छुट्टी में घर आये थे l उन्होंने बस दिखा दी जो गवाँ जायेगी l जाकर बैठा आगे जाकर मालुम हुआ की बस गवाँ नहीं संभल जायेगी l उसने हमें उस जगह उतार दिया जहाँ से मार्ग गवाँ के लिये जाता था l वहाँ कुछ स्थानीय लोग भी उतरे l उनसे पूछने पर मालुम पड़ा की गवाँ के लिये बस १० बजे आयेगी l वैसे जाने के अन्य साधन हैं l जैसे मोटरसाइकिल या ट्रक आदि जो जा रहे हो उनसे रुकवाकर उसमें जगह पाना l खैर मैं भी एक ट्रक में जा बैठा जो उस तरफ जा रही थी l आगे की सीट रबड़ की बनी थी और चौड़ी थी उसी पर बैठा l ग्रामीण इलाका होने की वजह से सड़क पर विशेष भीड़ नहीं थी l सड़क की हालत भी अच्छी थी l
करीब आठ बजे तक ट्रक ने मुझे गवाँ उतर दिया जिसे स्थानीय लोग गमे गमे कह रहे थे l अब वहाँ से बाँध धाम की दुरी सिर्फ २ किलोमीटर थी l ब्रजेश जी वहाँ आ गये मोटरसाइकिल से l उनकी मोटरसाइकिल खराब थी अन्यथा वे बबराला ही आने वाले थे दूसरे की मोटरसाइकिल लेकर आये थे l मेरे दिमाग में क्या आया की मैंने आधा किलो अंगूर और आधा किलो संतरा ले लिया चढ़ाने के लिये जिसे शाम को चढ़ाया गया l   
ब्रजेश जी के साथ मैं हरिबाबा बाँध धाम पहुँचा l वहाँ उसके परिवार के लोग के साथ साथ कई रिश्तेदार भी आये हुए थे l जाकर फ्रेश हुआ फिर नाश्ता आदि किया l थका हुआ था इसलिये आराम करना बेहतर समझा l दिन में ११ बजे से रासलीला का कार्यक्रम था मैंने देखने में विशेष उत्सुकता नहीं दिखलायी l शाम को जाकर प्रसाद चढ़ाया l ३ बजे से सत्संग का कार्यक्रम था जिसमें ४ संत पधारे थे जिनका प्रवचन बारी-बारी से हुआ l उनमें से एक हरिद्वार से पधारे दंडी स्वामी थे, अयोध्या से पधारे थे महंत नित्यगोपालदास l एक माँ प्रज्ञा जी तथा एक अन्य का नाम मुझे याद नहीं l उनका प्रवचन बहुत अच्छा रहा l सत्संग का कार्यक्रम शाम के करीब साढ़े ६ बजे तक चला l फिर ७ बजे के कीर्तन में मैं शामिल हुआ जोकि करीब सवा ८ बजे तक चला l वहाँ से आते समय क्या हुआ की मेरा एक चप्पल बदला गया l हुआ ये था की किसी ने गलती से मेरी एक चप्पल पहन ली थी और अपना एक छोड़ दिया था l वहाँ आस-पास ३-४ जोड़ी चप्पल ही बचे थे l बाकी लोग अपने चप्पल पहन कर जा चुके थे l मजबूरन मुझे बदला हुआ चप्पल पहन कर आना पड़ा l मैंने ब्रजेश जी से पूछा की यहाँ चप्पल मिल जायेगा l उन्होंने बतलाया की यहाँ तथा बबराला में भी चप्पल मिल जायेगा l आकर कमरे में भोजन आदि करके हम लोग सो गये l ब्रजेश जी उसकी पत्नी बच्चे और माताजी नीचे तोसक पर सोये जबकि मुझे ऊपर चौकी पर सोने का स्थान मिला l रात को कम्बल ओढ़कर सोना पड़ा l
रात को हम कमरा बंद करके सोये l अगले दिन यानि २१ मार्च की सुबह ४ बजे उठे सुबह के कीर्तन में जाने के लिये तो एक चमत्कारी घटना देखने को मिली l मेरे बदले हुए चप्पल के स्थान पर दोनों चप्पल मौजूद थे l ये भी संभव नहीं था की जिसका चप्पल बदला गया है उसने आकर वापस कर दिया और अपना ले गया क्योंकि कमरा बंद था और जिसका बदलाया था वह अनजान व्यक्ति था हमारे लिये l और आश्रम भी काफी बड़े क्षेत्र में फैला था l इस समय मैं चप्पल कमरे में रखकर ही कीर्तन में भाग लेने गया l
कीर्तन से लौटकर उजाला हो जानेपर हम बाँध धाम की परिक्रमा करने गये जिसकी दुरी करीब २ किलोमीटर है l आकर आश्रम के एक बगीचे में गये जहाँ तरह-तरह के फूल के पेड़ थे l वहाँ भी एक मजेदार घटना हुआ l घूमते-घूमते पता नहीं चला कहाँ मेरे कैमरे का कवर गिर गया जिसका मिलना लगभग नामुमकिन ही था तो मैंने मजाक में कहा चप्पल मिल गया है तो कैमरे का कवर भी मिल जायेगा और सही में एक तरफ दस कदम चलने पर कैमरे का कवर पड़ा मिल गया l
उस दिन आश्रम के गोशाले को भी देखने गया l वहाँ उनके रखरखाव की अच्छी व्यवस्था थी l
११ बजे रासलीला का कार्यक्रम था l चैतन्य महाप्रभु से जुड़ी हुई लीला प्रस्तुत की गई l कार्यक्रम बहुत अच्छा था l बिल्कुल जीवंत प्रस्तुति थी l
शाम को ३ बजे से उसी प्रकार सत्संग का कार्यक्रम हुआ l सत्संग सुनकर हम जब आये तो एक अन्य घटना हुई l हुआ ये था की हम सब लोग कमरा बंद करके गये थे तो वहाँ पर जैसे आये उसी समय बगल के कमरे का ताला चोर द्वारा तोड़ा गया था हालाँकि उसके हाथ कुछ नहीं आया तब तक लोग आ गये और चोर बिना कुछ लिये चला गया l मैं जिस कमरे में था उसी में मैं अपने मोबाइल को चार्ज में लगाकर गया था l अगर इस कमरे का ताला टूटता तो मेरे मोबाइल जरुर उनके हाथ पड़ता l उसके थोड़े देर बाद सड़क पर ब्रजेशजी और उसके मामा भी खड़े थे उसी समय एक साधु या संत से भेंट हुई l उन्होंने बतलाया की वे यहाँ एक साल से रहते है l ये सुनकर उन दोनों को आश्चर्य हुआ की उन्हें उनके बारे में पता ही नहीं था l वे पंजाब के किसी स्थान के रहने वाले थे l इससे पूर्व वे काफी समय केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि स्थानों पर रह चुके थे l इस जगह के बारे में उन्होंने बतलाया की यहाँ के बारे में १०-१२ साल से सुन रहे थे l उन्होंने अपना अनुभव बतलाया की किसी गुरु को पकड़ने पर एक साल तक साधना करने पर कोई लाभ मालुम नहीं दे तो समझना चाहिये की उस गुरु में कुछ विशेष नहीं है l उन्होंने इस प्रकार कई गुरु बदले थे l अंत में उन्हें लाभ हुआ था l साधना में उन्होंने त्याग को महत्पूर्ण बतलाया l वे बतलाये की वे सिर्फ भोजन के लिये यहाँ पर बाहर निकलते हैं इस समय उत्सव और रासलीला आदि का कार्यक्रम चल रहा है इसलिये शाम के समय निकले है l बाद में ब्रजेश जी के एक परिचित व्यक्ति ने उस साधु के बारे में बतलाया की ये पहले आये तो कहे की पंद्रह दिन रहेंगे दूध पर l फिर ३० दिन होते-होते ६ महीने दूध पर रहे इस बीच वे कमरे से बाहर नहीं गये l ६ महीने के बाद वे बाहर जाने लगे l
शाम को फिर कीर्तन में गया l आकर भोजन किया l इस कीर्तन के अलावा एक अखंड कीर्तन जोकि ४६-४७ वर्षों से चल रहा है मेरी उसमें शामिल होने की इच्छा थी l उसके लिये अलग भवन बना हुआ है हौल जैसा जहाँ हर समय सैकड़ों की तादात में लोग मौजूद रहते है l ये व्यवस्था इस तरह चलती है l उस क्षेत्र के बहुत से गाँव जोकि इसमें भाग लेते है उन्हें दिन के आधार पर १४ दिन में बाँटा गया है l यानि आज जिस गाँव की बारी आयी उसकी बारी फिर १४ दिन बाद आयेगी l और जिस दिन जिस गाँव की बारी आती है उस दिन उस गाँव के सैकड़ों स्त्री, पुरुष बच्चे आदि स्वेच्छा से आते है l इस प्रकार ये क्रम चलता रहता है l ब्रजेश जी ने ये बतलाया की कभी कभी तो उन्हें आने के लिये सवारी नहीं मिलती तो लोग ५-१० किलोमीटर से पैदल चलकर आते है l
मैं करीब साढ़े १० बजे रात को सत्संग भवन में बैठ गया l मेरा सुबह तक बैठने का विचार था कीर्तन में l मैं जाकर बैठा कुछ लोग उस समय किनारे में सो रहे थे l लेकिन कीर्तन लगातार जारी था l जैसे-जैसे रात होती गयी कीर्तन करने वालों की संख्या कमती गयी l बीच-बीच में अलग-अलग सुरों में ‘हरे कृष्ण हरे राम’ महामंत्र का कीर्तन चलता रहा l कभी कभार १-२ मिनट के लिये रुका हो नहीं तो कीर्तन चलता ही रहा l मुझे रात के करीब साढ़े ३ बजे से जोर से नींद आने लगी l फिर भी सुबह ५ बजे तक बैठा रहा l वहाँ से आकर फ्रेश होकर सो गया l करीब ९ बजे उठा l
आज २२ मार्च को श्रीहरिबाबा का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था l पहले दिन में श्रीहरिबाबा की  रथयात्रा निकाली गयी थी ट्रेक्टर पर l मैं और ब्रजेशजी पुरी यात्रा में शामिल नहीं हुए क्योंकि हमें भोजन करने में देर हो गयी थी l बीच मार्ग में एक ओर खडे हो गये जहाँ से रथयात्रा घुमकर जाने वाली थी l फिर भी हम करीब १ किलोमीटर पैदल जरुर चले होंगे l यात्रा में शामिल ज्यादातर लोग स्थानीय ग्रामवासी थे l बाहर से भी उनको चाहने वाले लोग आये थे l यात्रा अच्छी रही l  
ब्रजेश जी ने वहाँ मुझे अपनी मौसीजी से भेंट करवाया जो बचपन में श्रीहरिबाबा को भजन सुनाया करती थी l अपने एक मित्र कैलाश शर्मा से भी भेंट करवायी l अपने एक भैया से भेंट करवाया जो शाम को उनके पूर्वजों के मन्दिर में कीर्तन करवाते ही l और अन्य एक भैया से भेंट करवाई जो खुब पूजा, पाठ जप आदि करते हैं l उन्हें ये कुँवर साहब कहकर संबोधित करते थे क्योंकि वे जमींदार परिवार के थे l उनसे अच्छी चर्चा हुई मिलकर प्रसन्नता हुई l
ब्रजेश जी की माताजी की उम्र करीब ८० वर्ष होगी l इस उम्र में भी वे महामंत्र का १६ से १८ माला कर लेती है जोकि पूर्वाभ्यास के बिना संभव नहीं है l मेरे हिसाब से ब्रजेश जी तथा उनका परिवार ही नहीं बल्कि उनके रिश्तेदार भी धार्मिक प्रवृति के थे l उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा l उनकी माताजी तथा अन्य कुछ रिश्तेदारों जो अभी जीवित हैं उन्हें हरिबाबा का संगलाभ किया है l 
शाम को सत्संग के बाद श्रीहरिबाबा के समाधि मन्दिर जिसे बहुत अच्छी तरह से सजाया गया था वहाँ भी जन्मोत्सव मनाया गया l आतिशबाजी की गयी l फूल और रंग भी बरसाया गया l कुछ लोगों ने तौफी लुटवाई l कई लोग मस्ती से झूम रहे थे l उत्सव बहुत अच्छा रहा l
अगले दिन यानि २३ को चैतन्य महाप्रभु का जन्मोत्सव मनाया गया l उस दिन कुछ कीर्तन आदि हुआ था उसी जगह यहाँ हरिबाबा के समाधि मन्दिर परिसर में l उस भी उसी प्रकार फूलों की वर्षा की गयी और आतिशबाजी भी l दोनों दिन रंगों की भी आतिशबाजी की गयी थी l
उससे पहले दिन में मैं और ब्रजेश जी उस साधु से मिलने गये जो कल शाम को मिले थे l उनसे करीब आधा घंटा अच्छा सत्संग हुआ l
अब श्रीहरिबाबा धाम की कुछ चर्चा की जाय l उस क्षेत्र का वातावरण पेड़ पौधे से घिरा होने की वजह से काफी अच्छा है l उतने वर्षों से अखण्ड कीर्तन होते रहने की वजह से भी वातावरण में एक अजीब दिव्यता की अनुभूति होती है l मैं जिस समय गया था उस समय तो उत्सव चल रहा रहा था फिर भी यहाँ शान्ति का माहौल था l सामान्य दिनों में तो और भी अधिक शान्ति रहती होगी l मेरे ख्याल से ये घुमने के लिये तो नहीं साधना आदि के जरुर लिये उपयुक्त स्थान है l इस समय ऐसी शान्ति हरिद्वार और वृन्दावन में भी मिलना मुश्किल हैं क्योंकि उन जगहों के पेड़ कटने की वजह से गर्मी बढ़ चुकी है तथा जगहों का शहरीकरण हो चुका है l उन जगहों पर अब काफी भीड़ रहती है l साधना के लिये कम भीड़ भाड़ वाला स्थान ही सही रहता है l
यहाँ के ये बात मुझे पसंद आयी की यहाँ साधना करने की स्वतंत्रता है l ऐसी स्वतंत्रता इससे पूर्व मैंने शायद ही कही देखी होगी l अन्य जगह प्रायः ब्रांडेड सत्संग आदि होते है l मतलब जिस संत/महापुरुष के नाम पर वह जगह होती है उस जगह पर ठहरने वालों को सुबह से रात तक वहीं की दिनचर्या का पालन करना होता है l वहाँ स्वतन्त्र साधना करने का छुट नहीं मिल पाता है l  वहाँ उस महापुरुष के अलावा उस सम्प्रदाय के ही अन्य लोगों का महत्व रहता है l उस सम्प्रदाय या उस महापुरुष को न मानने वालों को प्रायः निम्न स्तर से देखा जाता है l
जबकि श्रीहरिबाबा बाँध धाम पर आकर ठहरने वालों के लिये ये आवश्यक नहीं है की वे श्रीहरिबाबा को गुरु मानता ही हो l उसका बस धार्मिक प्रवृति का होना पर्याप्त है l हमें कल शाम को जो साधु मिले थे वे हरिबाबा को नहीं मानते थे और जिस कमरे में वे एक साल से रह रहे थे वहाँ अपने गुरु का फोटो भी रखे हुए थे l अन्य जगह मैंने बहुत होगा तो ऐसे साधुओं को एक या दो शाम को भोजन करा दिया जायेगा लेकिन उस सम्प्रदाय को न मानने वालों को रहने की इजाजत तो नहीं ही रहती है l
वहाँ ठहरने की व्यवस्था थोड़ी अलग तरह से हैं l प्रायः स्थानीय लोग वहाँ अपने कमरे बनवाते है उस जगह और साल में जब भी आते है उस कमरे में ठहरते थे l वैसे लोग जिन्होंने कमरा नहीं बनबाया है उन्हें उन कमरों में ठहराया जाता है जो खाली रहता है l अगर जिसके द्वारा वह कमरा बनबाया गया है वह आ जाता है तो कमरा खाली करना पड़ता है l तब उन्हें अन्य खाली कमरा दे दिया जाता है l उसके अलावा हौल आदि भी है l उत्सव के अलावा सामान्य दिनों में बहुत से कमरे खाली रहते है अतः ठहरने की कोई समस्या नहीं आती l फिर भी किसी को  जाना हो तो वहाँ के व्यवस्थापक या किसी स्थानीय व्यक्ति से पहले संपर्क करके ही जाना ठीक रहेगा l
शाम को चैतन्य महाप्रभु के जन्मोत्सव मनाकर मैं ब्रजेश जी तथा अन्य लोगों के साथ उनके गाँव भिरावटी पहुँचा l जोकि बाँध धाम से करीब १७ किलोमीटर है l वहाँ ब्रजेश जी के बड़े भैया से भेंट हुई l वे बड़े सरल स्वभाव के थे l वे अपने खेत आदि दिखाने लगे l  मेरी यात्रा पर उन्होंने कहा की मुझे अलीगढ़ न आकर बरेली आना चाहिये था तथा वहाँ से बबराला के लिये पैसेंजर ट्रेन चलती है इससे कम दुरी तय करनी पड़ती और भाड़ा भी कम लगता l मैंने कहा मुझे इस रूट की जानकारी नहीं थी l ब्रजेश जी तीन भाई है उनके सबसे बड़े भैया आगरा में रहते है l उनसे भेंट तो नहीं हुई फिर भी जैसा ब्रजेश जी का कहना था वे बहुत उच्च आध्यात्मिक स्तर के हैं l कभी उनसे फोन पर जरुर बात होगी l
रात को बिजली कटी हुई थी l उस जगह बिजली गायब रहना एक समस्या है l भोजन आदि करके रात को हम करीब ११ बजे सोये l अगले दिन यानि २४ को होली थी l
सुबह ४ बजे के करीब ब्रजेश जी ने मुझे जगा दिये l वे अपने साथ गेहूँ की बाली लिये हुए थे l एक उन्होंने मुझे भी दिया l वहाँ से थोड़ी दूर पर होलिका दहन का अगजा जल रहा था l वहाँ गेहूँ की बाली सेंकी गयी l फिर वे मुझे वहाँ से २-३ किलोमीटर दूर भिरावटी में स्थित हरिबाबा के मन्दिर ले गये l वहाँ हमने दर्शन किया l वहाँ उन्होंने वह कमरा दिखाया जहाँ हरिबाबा आकर रुका करते थे l वहाँ के दो साधुओं से भी भेंट करवायी जो हरिबाबा के साथ रह चुके थे l ब्रजेश जी वहाँ तथा और भी कई लोगों से बताते रहते थे की ये सिर्फ किताब में हरिबाबा के बारे में पढ़कर ९५० किलोमीटर का सफ़र तय करके आये है l वैसे मुझे ये कोई विशेष बात नहीं लगती l जाने के लिये लोग तो विदेश से भी चले आते है l 
दर्शन आदि करके हम लौट चले l वहाँ से आते समय मैं ब्रजेश जी के साथ कुछ लोगों के घर गया l वहाँ सभी एक दूसरे से गले मिलते थे l एक व्यक्ति के यहाँ लोग रो रहे थे हम वहाँ भी गये थे मालुम पड़ा वहाँ एक जवान लड़के की कुछ दिन पूर्व मृत्यु हुई थी l वहाँ भी हम जाकर गले मिले l हम किसी के खुशी के अवसर पर पहुँचे या नहीं गम के अवसर पर जरुर जाना चाहिये यही मानवता है l
मेरे लिये ये नया अनुभव था l इससे पहले कभी भी गेहूँ की बाली को भी आग में सेंकते नहीं देखा था l मुझे पता नहीं की होली के समय अन्य गाँवों में भी ऐसा होता है या नहीं l शहर में तो होलिका दहन के समय लोग दिन में बने पकौड़े आदि फेंकते है l और इस तरह से सभी लोगों से गले मिलते भी कभी नहीं देखा l ३-४ वर्ष की उम्र के बाद होली के समय कभी गाँव में रहने का अवसर नहीं आया अतः ये अनुभव मेरे लिये नया था l शहर में लोग सुबह से दिन के करीब १२ बजे रंग खेलते है और शाम को अबीर l पहले लोग बहुत से लोगों के यहाँ जाया करते थे अब ये प्रवृति कमते जा रही है l अब लोगों में अपने त्योहारों के प्रति वैसा उत्साह नहीं रहता जैसा अंगेजी त्योहारों के प्रति रहता है l ये मानसिक गुलामी का प्रतिक है l
तो सुबह से रात तक बहुत से लोग ब्रजेश जी के यहाँ आये मिलने और अधिकाँश लोग मुझसे भी गले मिले l एक-दो लोगों को छोड़कर किसी ने मेरे पर रंग नहीं डाला l और हाँ रात तक एक ही ढंग से होली खेली गयी l यहाँ मैंने किसी को शाम के समय गाल पर अबीर लगाते नहीं देखा l एक तरह से अब अब गाँव में भी बहुत सभ्य तरह से होली खेली जाती है l वरना वह भी एक समय था जब होली के कुछ दिन पूर्व से ही लोग बिल्कुल पुराने कपड़े पहनकर निकला करते थे की कही कोई रंग न डाल दे l होली के दिन तो गंजी फाड़ देना और आदमी को उठाकर कीचड़ और गोबर में डाल देना तो आम बात थी l उस समय और भी तरह तरह के खुराफात लोग करते रहते थे l उस दिनों एक तौफी भी आती थी लेमनचूस की तरह जिसे खाते ही मुँह में रंग आ जाता था जोकि तौफी में मिला रहता था l लोग मुर्ख बनाने के लिये इसे एक दूसरे को खिलाते थे l
उस दिन शाम को हरिबाबा बाँध धाम पर मिले कुँवर साहब से मन्दिर प्रांगण में बहुत उच्च कोटि की आध्यात्मिक चर्चा हुई जिसे एक तरह से शास्त्रार्थ भी कह सकते है हालाँकि विवाद की नौबत नहीं आयी l वे संभवतः ब्रजेश जी के चचेरे भाई है l
ब्रजेश जी के तीन बच्चे हैं l दो जुड़वाँ जिनकी उम्र दो वर्ष से कम ही है और बड़ी बेटी तीन साल की होगी l तीनों बड़े संस्कारी l जाकर खुद से भगवान् की प्रतिमा के सामने खुद से उन्होंने झुककर प्रणाम किया l ब्रजेश जी ने अपने एक भैया से बाँध धाम पर मिलवाया था वे बहुत अच्छा कीर्तन कराते थे l उनका घर ब्रजेश जी के बगल में ही था l वे शायद कुँवर साहब के भाई ही थे l जब रात के आठ बजे के करीब कीर्तन चालु हुआ और हम लोग मन्दिर से थोड़ी दूर थे और आवाज सुनकर ब्रजेश जी की बड़े बेटी ने कहा पापा कीर्तन l इतनी छोटी उम्र में ये संस्कार पूर्वजन्म के अच्छे संस्कारों के बिना संभव नहीं मेरे विचार से l करीब ४५ मिनट का कीर्तन हुआ होगा l
अब मन्दिर की बात की जाय l जैसा उन लोगों ने बतलाया ये मन्दिर ४०० वर्ष पुराना है और उनके पूर्वजों द्वारा बनबाया गया था l उसमें श्रीराम, माँ सीता और लक्ष्मणजी की अष्टधातु की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी l उन्होंने बतलाया की पहले ये प्रतिमा जयपुर नरेश के पास थी l फिर स्वप्नआदेश या किसी अन्य घटनाक्रम से पुजारी सहित यहाँ आ गयी थी l मन्दिर के ऊपर पहले सोने का कलश था जिसे १८५७ के विद्रोह के समय उस समय का मुस्लिम शासक उतारकर ले गया था l
अगले दिन यानि २५ को मेरे निकलने की बात थी l हमने ट्रेन चेक किया तो बरेली के बजाय अलीगढ़ से जाना ज्यादा सही प्रतीत हुआ l उसके लिये धनारी स्टेशन से अलीगढ़ के लिये पैसेंजर ट्रेन दोपहर को करीब साढ़े १२ बजे थी l हमारे बीच कुछ आध्यात्मिक चर्चा हुई जिसमें कुछ मुद्दों पर मतभेद था हालाँकि मनभेद की नौबत नहीं आयी l चर्चा में देर हो गयी और जब मैं उनके साथ वहाँ से करीब १० किलोमीटर दूर धनारी स्टेशन पहुँचा तो ट्रेन जा चुकी थी l तब वहाँ से थोड़ी दूर अलीगढ़ के लिये उनके साथ जाकर बस पकड़ा l और साढ़े ३ बजे के करीब बस से अलीगढ़ स्टेशन पहुँच गया l मुझे लखनऊ या कानपुर के लिये ट्रेन पकडनी थी l स्टेशन पर ठीक से गाडी का अनाउंसमेंट भी नहीं हो रहा था l दिल्ली से आने वाली कुछ ही ट्रेन यहाँ रूकती थी l मुझे पूर्वा पसंद आया क्योंकि ये ट्रेन सुपरफास्ट थी l ट्रेन रात को करीब साढ़े ७ बजे आयी लेकिन जनरल बोगी में इतनी भीड़ थी की चढ़ना संभव नहीं हुआ l और ट्रेन का stopage भी यहाँ कम देर का था l फिर एक ट्रेन थी नाम तो याद नहीं संभवतः समस्तीपुर या मधुबनी जा रही थी l मालुम पड़ा की ये कानपुर होकर जायेगी l तो उसी में बैठ गया l किसी तरह जगह मिल ही गयी l २-३ घंटे सो भी लिया l गाडी ने १ बजे रात को कानपुर पहुँचा दिया l इतना तो मुझे पता था की जो भी ट्रेन दिल्ली से आ रही होगी उसमें भीड़ होगी ही अतः मुझे तब किसी ऐसे ट्रेन की तलाश थी जो कही और से आती हो और बनारस जाती हो l मालुम पड़ा की रात के साढ़े ३ बजे जोधपुर वाराणसी ट्रेन है l अतः मैंने उसी ट्रेन से जाने का फैसला किया l ट्रेन करीब ३.४० में आयी l उसमें ज्यादा भीड़ नहीं थी l थोड़ी देर में जगह भी मिल गयी और लखनऊ के बाद इतनी खाली हो गयी की मैं आराम से सोकर आया l ये जौनपुर, सुल्तानपुर आदि होकर जाती थी l रास्ते में भी ट्रेन में भीड़ नहीं हुई l ट्रेन ने करीब साढ़े ९ बजे मुझे बनारस पहुँचा दिया l वहाँ से पटना के लिये बहुत सी ट्रेन चलती है लेकिन चूँकि फ्रेश नहीं हुआ था इसलिये मैंने शाम तक रुकने का फैसला किया l
वाराणसी स्टेशन के पास ही १२५ रुपये में एक जगह डोरमेट्री मिल गयी l जाकर स्नान आदि के निवृत होकर पूजा आदि करके भोजन किया और करीब २-३ घंटे सोया भी l शाम करीब साढ़े ५ बजे उस जगह को छोड़ दिया l कचौड़ी गली जोकि विश्वनाथ मन्दिर के पास ही है वहाँ से करपात्री जी महाराज द्वारा लिखित श्री राधा सुधा पुस्तक ली l और भी कुछ पुस्तक खोजा नहीं मिला l
बनारस से भी मैंने उस ट्रेन को पकड़ने का फैसला किया जिसमें विशेष भीड़ नहीं होती हो l मुझे बुद्धपूर्णिमा पसंद आया जोकि वाराणसी से राजगीर तक जाती थी l वाराणसी से पटना की दुरी २२९ किलोमीटर है लेकिन ये ट्रेन जिस रूट से जाती है उसकी दुरी ३१८ किलोमीटर है l इसकी वजह ये है की ये पहले देहरी ओन सोन और गया होकर तब पटना पहुँचती है l ट्रेन खुलते का समय था करीब साढ़े आठ बजे l ट्रेन १ घंटे पहले ही आकर लग गयी l आराम से ऊपर के एक सीट पर चढ़कर बैठ गया l कभी भीड़ बढती कभी कमती रही l मुझे सीट मिल चुका था इसलिये मैं बेफिक्र था l मैं सोते सोते आया और ट्रेन ने बिल्कुल सही समय पर ३ बजे रात को पटना उतार दिया l स्टेशन पर करीब डेढ़ घंटे रुका और साढ़े ४ बजे ऑटो पकड़ा और घर आ गया l

इस तरह से पुरी हुई मेरी ट्रेन में जनरल से अब तक की सबसे लम्बी यात्रा जोकि आध्यात्मिक दृष्टि से भी काफी सफल रही और घुमक्कड़ी की दृष्टि से तो रही ही l    

वेदपाठी छात्रों द्वारा संतों का स्वागत 


चैतन्य महाप्रभु की शाम की आरती 



गुमनाम मुसाफिर बाँध धाम के बगीचे में 

ब्रजेश जी के साथ 

बाँध धाम का मुख्य प्रवेश द्वार 

गोशाला 


अच्छा सन्देश 

यहाँ भोजन तैयार होता था 


चैतन्य महाप्रभु पर लीला का मंचन 



राधा कृष्ण लीला 

मंच पर आसीन संत 


यही साधु हमें मिले तो जो बाँध धाम पर एक साल से रह रहे है 

हरिबाबा समाधि मन्दिर 


शाम के समय का कीर्तन 

संकीर्तन भवन जहाँ ४७ वर्षों से महामंत्र का अखंड कीर्तन चल रहा है 


रात ३ बजे 

सुबह का कीर्तन 

चैतन्य महाप्रभु लीला का मंचन 


रासलीला देखने जुटे लोग 

श्री हरिबाबा के जन्मोत्सव के समय निकली यात्रा में शामिल लोग 
















२२ मार्च की शाम का सत्संग 

२२ मार्च की शाम को श्री हरिबाबा के जन्मोत्सव के समय की सजावट 









रंग और आतिशबाजी 




ये फोटो में धब्बे उड़ते हुए रंग के कारण नजर आ रहे हैं 






संकीर्तन भवन 


कुँवर साहब 

चैतन्य महाप्रभु का जन्मोत्सव 












इस तरह गाँवों का क्रम बंधा हुआ है जो संकीर्तन करने पहुँचते है 

भेरावटी के मन्दिर में श्री हरिबाबा 



भेरावटी में इस कमरे में आकर हरिबाबा ठहरते थे  

मन्दिर की छत पर 


मन्दिर से लौटकर आते समय सूर्योदय का मनोरम दृश्य 

ब्रजेश जी के पूर्वजों द्वारा ४०० वर्ष पूर्व स्थापित मन्दिर में प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ

रंग खेलते बच्चे 




मन्दिर के पुजारी जी 


शिवलिंग